Sunday 8 October 2017

सामाजिक सिनेमा के कथास्रोत..महानतम उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंदजी! 

(८१ वे स्मृतिदिन पर नमन!)


अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में यथार्थवादी साहित्य की परंपरा शुरू करनेवाले संवेदनशील लेखक थे..धनपत राय श्रीवास्तव तथा मुंशी प्रेमचंदजी!

उनके साहित्यसे पहली बार मैं परीचित हुआ पाठशाला की किताब में पढ़ी उनकी एक लघुकथा से..और उसमें प्रतिबिंबित जीवनानुभव से मैं बहोत प्रभावित हुआ!

आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह माने जानेवाले उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंदजी का साहित्य जीवनाभिमुख था। उनकी पहली कहानी 'सौत' १९१५ में 'सरस्वती पत्रिका' में प्रकाशित हुई और बाद में बीस वर्षों की उनकी साहित्य संपदा ज्यादा तर वास्तव जीवन को प्रतिबिंबित करती रही...जैसे की 'गबन'!
उनके उपन्यास का मूल कथ्य भारतीय ग्रामीण जीवन था...१९३६ में प्रसिद्ध हुआ उनका श्रेष्ठतम उपन्यास 'गोदान' इसकी प्रचिती देता है..इसमें सामंतवाद और पूंजीवाद की चक्र में फंसकर किसानकी होती दुर्दशा पाठकोंको सुन्न करती है!

'गोदान' (१९६३) में राजकुमार, कामिनी कौशल, मेहमूद और शोभा खोटे!

कहानीकार के साथही सामाजिक विषयोंपर भी उन्होंने 'स्वदेश' और 'जागरण' जैसी पत्रिकाओंमें लिखा और विद्वान् संपादक भी रहे! १९३६ में लखनऊ में हुए 'अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' सम्मेलन के वह अध्यक्ष रहे!

'गबन' (१९६६) में साधना और सुनिल दत्त!



रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्रों में भी मुंशी प्रेमचंदजी का योगदान रहा। 'संग्राम' (१९२३) और 'प्रेम की वेदी' (१९३३) जैसे नाटक उन्होंने लिखे और उनकी कई कहानियोंपर फिल्में बनी...इसमें सर्वप्रथम त्रिलोक जेटलीने 'गोदान' (१९६३) बनाई..जिसमे राजकुमारने बेहतरीन काम किया था! फिर जानेमाने फ़िल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने 'गबन' (१९६६) बनाई; तो ख्यातनाम फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनकी अंतिम कहानी 'कफ़न' पर 'ओका ऊरी कथा' (१९७७) यह तेलुगु फिल्म बनाई!


'शतरंज के खिलाडी' (१९७७) में सईद जाफ़री और संजीवकुमार!
इसके बाद विश्वविख्यात फ़िल्मकार सत्यजित राय ने 'शतरंज के खिलाडी' (१९७७) इस ऊर्दू फिल्म का निर्माण किया और दूरदर्शन के लिए उनकी कहानी पर 'सद्गति' बनाई। १९८० में उनकी उपन्यास पर 'निर्मला' यह टी. वी. धारावाहीक बना..और आगे भी संवेदनशील कवि-फ़िल्मकार गुलज़ारजी ने 'तहरीर मुंशी प्रेमचंद की' बनायी!

'निर्मला' में अमृता सुभाष!

मुंशी प्रेमचंदजी का साहित्य एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी भाषा विकास का अध्ययन अधुरा होगा... वह आज भी प्रासंगिक है!

इस महान साहित्यकार को मेरी यह विनम्र आदरांजली.!!

- मनोज कुलकर्णी
['चित्रसृष्टी', पुणे]

No comments:

Post a Comment